डॉ. अमित कुमार
सारांश (ABSTRACT ):–प्रस्तुत: लेख भारत में ‘कुम्हार के ज्ञान और विकास की अर्थनीति पर आधारित है’। हालांकि विकास की अर्थनीति को परिभाषित करने के बहुत से आयाम रहे है, जिससे विकास और अर्थनीति में बहुत अंतर्संबंध देखने को मिलता है। विकास का संबंध अपने आप में ज्ञान से भी जुड़ा रहा है अर्थात् आधुनिक समय में विकास की अवधारणा की पहचान ज्ञान के सशक्त व उन्नत रूप से की जाती है। यद्यपि ज्ञान और विकास को जिस तरह आज एक साथ जोड़कर देखा जा रहा है उसमें ‘आर्थिक पक्ष’ की एक महत्वपूर्ण भूमिका भी रही है। यह किसी ‘विशेष “ज्ञान” ’ को विकास के साथ जोड़कर और ‘अन्य “ज्ञान”’ को ‘विकास के ज्ञान’ से अलग रखने में सहायक रहा है। यह ‘अन्य “ज्ञान”’ अपने आप में ज्ञान का ही एक रूप रहा है। इस ज्ञान को तीव्र वैज्ञानिक/तकनीकी आधुनिक सामाज में पारंपरिक/गैर-ज्ञान से संबोधित किया जाता है। पिछले दो-तीन दशको से यह (पारंपरिक/गैर-ज्ञान) ज्ञान ‘विकास के वैकल्पिक ज्ञान’ के रूप में अपनी अस्मिता/पहचान के लिए संघर्षरत रहा है। इस अभिमत के साथ में मैं भारत में कुम्हार के ज्ञान को विकास और अर्थनीति के विशेष संदर्भ में समझने का प्रयास करूँगा।
वर्तमान में हम जब भी ज्ञान की बात करते हैं तो पाते हैं कि वैज्ञानिक ज्ञान के आलावा अन्य कोई ज्ञान, ज्ञान नहीं माना जा सकता हैं। लेकिन वहीं जब हम ज्ञान के इतिहास की बात करते हैं तो पाते हैं कि इसमें विश्व के एक बहुत बड़े क्षेत्र को ज्ञान के क्षेत्र से बाहर कर दिया हैं। यहाँ ज्ञान का यह बड़ा क्षेत्र तीसरे विश्व के देशों के साथ अधिक संबंधित रहा हैं। इसका मूल कारण इस परिक्षेत्र में विज्ञान के ज्ञान के स्थान पर पारंपरिक व स्थानीय ज्ञान का बहुत बड़ा योग रहा हैं। यहाँ यह भी अभिमत उभरकर सामने आता हैं कि मानव इतिहास में पारंपरिक तौर पर विद्यमान तकनीक और कौशल पद्धति को ज्ञान का अभिन्न अंग नहीं माना गया। यह ज्ञान तीसरे विश्व के देशों में छोटे-छोटे स्थानीय स्तर पर विद्यमान रहा हैं। जो उस क्षेत्र विशेष के व्यवस्थापरक संचालन में सहभागी रहा हैं। इस प्रकार हमें ज्ञान के इतिहास में ज्ञान के विभिन्न पक्षों की पहचान करने की आवश्यकता है कि किस प्रकार यह वर्तमान में गैर-ज्ञान माने जाने वाला पक्ष ज्ञान का ही एक अभिन्न अंग रहा हैं। और आधुनिकता के चलते अपने हाशिएकरण का शिकार रहा है।[1]
विज्ञान को हम सामान्य तौर पर भौतिक वास्तविकता से देखते है। जो कि अभौतिक वास्तविकता के विपक्ष से है। इस प्रकार भौतिक वास्तविकता को हम विश्व में चीन, दक्षिण-एशिया, और मध्य पूर्व (और बाद में मध्यकालीन यूरोप) के प्राचीन सभ्यकरण से ही नहीं देखी जानी चाहिए, बल्कि यह छोटे परिक्षेत्रों से भी है, जो कि जनजातीय स्तर पर है। “विज्ञान” की एक अच्छी समझ के लिए जो विचार सामने आता है कि ‘कोई एक पक्षीय आयाम नहीं हैं जो विज्ञान के आधार पर भौतिक यथार्थ को बता सके’। इससे जाहिर होता है कि आधुनिक समय में पश्चिम द्वारा परिभाषित विज्ञान की अवधारणा से बाहर भी विज्ञान का अस्तित्व विभिन्न क्षेत्रों में देखा जा सकता हैं।[2]
हम जब प्राचीन भारतीय इतिहास में समाज कि बेड़ियों को खोलते है तो पाते है कि कैसे वर्तमान में ज्ञान और समाज का अपने इतिहास से संबंध रहा है, तथा कैसे आधुनिकता के प्रसंग ने इसे चुनौती दी है। इस आधुनिक ज्ञान को हम मूलत: विज्ञान-तकनीक और सुचना के संकेन्द्रण विज्ञान से पाते हैं। आधुनिक समय में होने वाले आमूलचूल परिवर्तन से समाज और ज्ञान के संदर्भों में बहुत तब्दीलिया देखीं जा सकती हैं। भारत में वैज्ञानिक संस्कृति की शुरुआत को ब्रिट्रिशों ने प्रारंभिक 19 वी शताब्दी में सभ्यकरण कार्यक्रम (CIVILIZING MISSION) व आधुनिकीकरण से परिचित कराया। लम्बे समय तक उन्होंने 19 वी सदी में एक के बाद एक शासन की नई संरचना (आधुनिक संसाधन, संरचना, ज्ञान, परिक्षण) पिरोई और भारत का विकास एक स्थान से हस्तान्त्रित किया। इस समय में भारत का निर्माण नई संरचना और ज्ञान से संबंधित रहा। जिसमें विज्ञान के तर्क पर सत्ता को प्रतिपादित किया गया। और ब्रिट्रिशो ने अनुभव ज्ञान (EMPRICAL SCIENCE) को वैश्विक ज्ञान के तौर पर दर्शाया।[3] विज्ञान के उदय ने विकास की एक नई अवधारणा को जन्म दिया, जिसने व्यक्ति के अधिकारों और उदारवाद जैसी विचारधारा तथा औद्योगीकरण के साथ मिलकर अति-उत्पादन और अति-उपभोग की संस्कृति को बढ़ावा दिया।
ज्ञान के संदर्भ में यदि हम विवेचन करे तो देखते हैं कि विज्ञान ही ज्ञान का मूल स्रोत है। लेकिन वहीं दूसरी ओर स्थानीय ज्ञान व पारंपरिक ज्ञान के धारकों की ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। पी. एन. शंकरन का मत है कि कैसे हथकरधा (CRAFT) का ज्ञान विकास के लिए उपयोगी रहेगा। यह बहुत अच्छे से जाना जा सकता है कि भारत में यह हथकरधा ज्ञान कम लागत के साथ और पर्यावरण को नुकसान पहुचाये बिना विकास के लिए बहुत उच्च स्तर का हैं। इसमें ईंख उत्पादन, मिट्टी व कुम्हार की कला, मछली पालन, कृषि उत्पादन, संगीत के यंत्र और ज्वैलरी आदि को हम उनकी कला-कौशल के उपयोग के तौर पर देख सकते हैं। लेकिन यह कौशल अपने विस्तार के लिए एक ऐसे ढुलमुल व्यवस्था में हैं, जहाँ उच्च तकनीक ने इन जनजाति समुदायों के मन मस्तिष्क पर काबु कर लिया है।[4]
सभ्यता, कुम्हार और ज्ञान
मिट्टी के प्राप्त उत्पादों/अवशेषों के आधार पर प्रत्येक-काल के मनुष्य जीवन की परस्थितियो का पता लगाया जा सकता है। वी. डी. कृष्ण स्वामी (V. D. KRISHAN SWAMI) बताते है कि आज मनुष्य के विकास का जो अध्ययन हो रहा है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्राथमिक युग में मनुष्य को किसी प्रकार के बर्तनों की जरुरत नहीं थी। वह अपना जीवन कच्चा मांस खाकर तथा फलों के द्वारा यापन करता था। किन्तु आगे (प्रस्तर युग में मिट्टी के बर्तंन) मनुष्य हाथ से मिट्टी के बर्तन बनाने लगा। प्रारम्भ में मनुष्य ने पानी को एकत्रित करना सीख लिया था जो जानवरों को पानी पिलाने के लिए पेड़ो को काटकर उसको खोखला करके किया जाता था। प्रारंभ में मटके/कुम्भ/घड़े का प्रयोग खोखले तौर पर मिट्टी से बनाया गया था। लेकिन बाद में बंबू से पानी को एकत्रित करने की कला से लेकर मिट्टी के बर्तनों को अग्नि में पकाकर उसे ज्यादा मजबूत बनाने की समझ का विकास हुआ। इससे ज्ञात होता है कि हमारे सभ्यकरण से पूर्व ही कुम्हार कला का इतिहास में अस्तित्व रहा है।[5] सर ब्रिडवुड (SIR BRIDWOOD) के अनुसार भारत में मिट्टी कला का उद्भव भारतीय मानव के सभ्यकरण से भी पूर्व रहा है। इनके अनुसार मिट्टी कला भारत से मिस्र, मेसोपोटामिया, बेबिलियोन आदि तक गयी। वहाँ पर हम भारत के जैसे ही विचारों को पाते हैं। इस समय में भट्टी की ईंट, छोटी मूर्तिया, घड़ो/मटकों का एकत्रण, आदि की व्यवस्था स्पष्ट देखी जा सकती है। हड़प्पा और मोहन-जोदड़ो से प्राप्त साक्ष्यों तथा ऋग्वेद में वर्णन से इसका महत्व तथा विकास प्रतिबिंबित होता है। जे. एस. पी. परमर और डी. टी. ऐन. केंट के शोध में विवेचन है कि चीन सर्मिक (CERMICS) का चीन में (AD 581-681) तक सू काल (SUE DYNASTY) में प्रयुक्त मृदा उत्पाद भारत से आयातित हैं।[6] इस तरह कुम्हार का ज्ञान मनुष्य के जीवन के साथ अधिक जुड़ा रहा और उसका विश्व के अन्य क्षेत्रों तक फैलाव हुआ।
हम सर्वप्रथम मिट्टी पर कुम्हार की समझ को देख सकते हैं। कुम्हार बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को प्राय आस-पास के प्राचीन पोखरों से लाते है। जिसमें प्राय पानी साल भर रहता है। प्राचीन नगरो में छिछले कच्चे जलाशयों की कमी नहीं थी। लेकिन इनकी संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। बर्तन बनाने के लिए मिट्टी इन्हीं जलाशयों से लाई जाती है। क्योंकि यहाँ की मिट्टी चिकनी रहती है और पानी में पड़े-पड़े सड़ कर लचकदार/लचीली हो जाती है। इस मिट्टी को घर लाकर कुम्हार पाँच से छ (5-6) दिन तक भलीभांति पानी देकर पाँव से रौंधता है और सड़ाता है जिससे उस मिट्टी में और लस उत्पन्न हो जाए। इसके पश्चात छोटी-छोटी कंकड़ी को साफ़ करने के लिए मिट्टी का लोंदा बना कर उसे हाथ से बेला जाता है। इसके बाद मिट्टी में से हवा के बुलबुले निकालने के लिए उन्हें जमीन पर बार-बार पटका जाता है। इस सबके बाद मिट्टी चाक पर रखने के लायक होती हैं। इसके उपरांत कुम्हार इस चाक से उतरे बर्तनों को धूप और हवा में सुखाने के पश्चात उसे आव़ा/भट्टी में गोबर के उपले और लकड़ की सहायता से पकाता हैं। जिसके उपरांत ये बर्तन पककर तैयार हो जाते है (यहाँ हम मिट्टी का उपयोग कुम्हार के ज्ञान द्वारा समाज हित / पर्यावरण हित के लिए देख सकते हैं) ।
कुम्हार और विकास का ज्ञान
कुम्हार के जन्म से संबंधित बहुत सी किवदंतिया सुनने को मिलती हैं जिनका वर्णन विभिन्न हिन्दू धार्मिक कथाओं में हैं। जैसे कि हम प्रथम यहाँ पर एक हाथी को कीचड़ में खेलने संबंधी विचार को देखते हैं। यह कीचड़ से लथपथ हाथी जब मार्ग से जा रहा था उस समय उसके माथे पर पड़ी मिट्टी का कुछ हिस्सा जमीन पर गिरा और उस मिट्टी से एक कुम्भ का निर्माण हुआ, जिसमें से इस कुम्हार का जन्म हुआ है। दूसरी कहानी में सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा (ईश्वर), मिट्टी से एक पुतले का निर्माण करते हैं और इस पुतले में प्राण डालते हैं जिसके उपरांत एक मनुष्य बनकर तैयार हुआ, जिसे कुम्हार के नाम से जाना गया और यही कुम्हार भारत में “प्रजापति” कहलाया। ऐसे ही भारत में भिन्न-भिन्न स्थानों पर कुम्हारों के उदभव की भिन्न-भिन्न कथाए व धार्मिक विवेचन सुनने को मिलते हैं।[7] रोमिला थापर का मत है कि कुम्हार वह कलाकार होता है जो अपनी कला-कौशल से मिट्टी कला व बर्तन बनाने का काम करते है। जो कि एक विशिष्ट ज्ञान प्राप्त श्रेणी से संबंधित होते है।[8] काँचा इल्लेया ने लिखा है कि कुम्हार विश्व में वे लोग है जो प्रारंभ से अब तक अपने विशिष्ट कला-कौशल व तकनीकी ज्ञान वाले समुदायों से संबंधित है।[9] सामान्य अर्थों में कुम्हार का संबंध भारत में धार्मिक व्यवस्था, जातिगत व्यवस्था और कला-कौशल ज्ञान से देखा गया है। यहाँ पर कुम्हार को यदि स्पष्ट शब्दों में बयान किया जाए तो इसकों हम एक ऐसे लोगों का समुदाय मान सकते है जो अपने प्रारंभिक समय से ही अथवा पुश्तैनी रूप से मिट्टी के बर्तनों, मूर्तियों, सजावटी उत्पादों, ईंटो के निर्माण, खपरैलों (टाइल्स) आदि के काम में लगें हो। ये लोग अपने को एक विलग जाति समुदाय के तौर पर परिभाषित करते हैं।
हाँलाकि इस समुदाय के बहुत से हिस्से जाति- व्यवस्था से इतर भी पहचाने जा सकते हैं। उदाहरण के लिए हम यहाँ पर मणिपुर के उक्रूल जिले के लोंग्पी (Longpi) में एक क्षेत्र-विशेष के लोगों को देख सकते हैं। ये लोग इस मिट्टी कला को काले पत्थर को बारीकी से पीसकर उसमें उचित मात्रा में पानी और अन्य मिट्टी का मेल करके बर्तनों का निर्माण करते हैं। जो कि इस कला-कौशल के साथ जुड़े हैं, लेकिन वे यहाँ किसी भी तरह के जातिय पहचान को नाकारते है। वहीं दूसरी तरफ हम मिट्टी कला के मुस्लिम कारीगरों का भारत में आने के बाद के लोगों को इसमें जोड़कर देखते हैं। ये लोग भारतीय हिन्दू धार्मिक जातिगत व्यवस्था से परे मुस्लिम समुदाय से है जो स्वयं इस कला-कौशल से जुड़े हुए हैं। अत: यहाँ पर कुम्हार को एक वृहत आयाम में समझने का प्रयास हैं। इस प्रकार कुम्हार से तात्पर्य उन जन-समुदाय से है जो अपने सृजनात्मक उत्पादों से मानव विकास का पथगामी रहा है तथा जिसकी अनुठी छाप हम प्राचीन भारतीय हड़प्पा संस्कृतिक समय से देख सकते है, जो इतिहास का एक अभिन्न अंग है। कुम्हार वह कलाकार होता है जो पाँच तत्वों (Five Element) (धरती/मिट्टी (Earth/clay), आकाश (Sky), हवा (Air), प्रकाश, जल (Water), अग्नि (Fire),) को एक साथ मिलाकर अपना कार्य संपन्न करता है। जिससे किसी कल्पना को एक आकृति प्रदान की जाती है।
हम यहाँ पर कुम्हारों के कला-कौशल को दो भागों में देख सकते है। प्रथम वे कुम्हार हैं जिनके बने उत्पादों का संबंध हमेशा से ही चाक, डंडे, सूत और आवा/भट्टी से रहा है। और दूसरे वे कुम्हार है, जिनका संबंध हाथों के बने उत्पादों के कला-कौशल से रहा है। यहाँ कुम्हार के द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले कार्य में हम मुख्यतः उसके कार्य में सहायक साधनों जैसे, चाक[10] (यूरोप सहित भारत में चाक सिलाई की मशीन की भांति पैर से और अब बिजली से चलने लगा है)। उत्तर भारत में तो चाक पूजन (शादी / विवाह) को काफी पवित्र माना जाता है। इससे चाक के सामाजिक जीवन में एक विशेष महत्व को देखा जा सकता है।[11] दंडा/लकड़ की छड़ी (यह कुम्हार के द्वारा चाक को चलने के काम आता है। यह मिट्टी को बारीक़ करने में भी काम आता है)। सूत/डोरा (इसकी सहायता से कुम्हार मिट्टी के बर्तन को चाक से उतारता है)। आवा / भट्टी (मिट्टी के बर्तनों को आग में डालने पर वह टूटते नहीं है, इस तरह से हम आव़ा के महत्व को देख सकते है)।
कुम्हार, विकास और अर्थ-राजनीति
भारत स्वतंत्रता से पूर्व और स्वतंत्रता के बाद भी लोगों की जनसंख्या का एक वृहत हिस्सा आज भी गैर-संगठित क्षेत्र में काम करता है। जो कि कृषि और स्थानीय हस्त-कौशल व छोटे घरेलू व्यवसाय से अधिक संबंधित रहा है। आधुनिक समय में मैं यहाँ पर मूलत मिट्टी कला के संदर्भ में कुछ अन्य बातों पर भी प्रकाश डालने का प्रयास करूंगा। भारत में हम चीनी मिट्टी व सफ़ेद बर्तनों के बाजारीकरण और औधोगिकिकरण को देख सकते हैं। 18 वीं सदी के अंत में ब्रिट्रिशो का व्यवसाय, मुग़ल शासन के बाद काफी रचबस गया था, तथा अंग्रेजों ने चीनीमिट्टी के उत्पादों को अन्य के मुकाबले ज्यादा तवज्जों दी। उदाहरण के तौर पर हम यहाँ पर उनके द्वारा चीनी मिट्टी के चाय के बर्तनों की खरीद को देख सकते हैं। प्राचीन भारत में चीनी मिट्टी के बर्तन और सफ़ेद बर्तनों का कोई साक्ष्य/तथ्य मौजूद नहीं है। सर्वप्रथम भारत के बिहार में चीनी मिट्टी के बने बर्तनों को हम 1839 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा उत्पादित पाते है। इसके बाद सभी यूरोपीय और भारतीय वैज्ञानिको द्वारा एकत्रित अनुभवों से प्राप्त जानकारी से ज्ञात होता है कि अच्छी/उच्च गुण के मिट्टी के बर्तन (ग्लास) 1860 में बने थे। सन 1859 में बिहार और बंगाल में रेलवे और कंपनियों के लिए ईंटो को बनाना शुरू किया गया तथा कलकत्ता और ग्वालियर इस सदी के प्रथम चीनीमिट्टी उद्यगो के गढ़ रहे थे।[12] इस तरह हम देख सकते हैं कि कैसे भारत में मिट्टी कला के ज्ञान क्षेत्र पर आधुनिकीकरण का प्रभाव पड़ा है। अमिताव रथ (AMITAV RATH) खुर्जा में सेरामिक पॉटरी पर एक अध्ययन में बताते है कि आधुनिक समय में उत्तर-प्रदेश (U.P) सरकार द्वारा 1942 में मिट्टी कला के कारखानों का निर्माण कराया गया। इसके लिए 1930 के दशक में प्रो. एच. एन. राय को उत्तर प्रदेश सरकार ने नियुक्ति किया (जो सफ़ेद रंग के चीनीमिट्टी के उत्पाद के परिक्षण के साथ इंग्लैंड से आए) जिन्होंने भारत में खुर्जा में परंपरागत स्थानीय कुम्हारों को उनकी तकनीक में सुधार और नए तरीके के तकनीकी अविष्कार को अपनाने का मत दिया।[13]
स्वतंत्रता के उपरांत भारत में परंपरागत कुम्हार समुदाय ज्ञान, आर्थिक और राजनीतिक नीतियों के कारण हाशिए पर पहुच गया है। इसे हम भारत में बड़े स्तर पर सरकार की औध्योगिकिकरण और बाज़ारवादी नीतियों में अमुलचुक परिवर्तन के चलते देख सकते है जिसका सीधा प्रभाव परंपरागत कुम्हार समुदाय और पर्यावरण पर देखने को मिलता है। संक्षेप में कैसे परंपरागत ज्ञानधारक कुम्हार समुदाय को आज पर्यावरण के क्षेत्र में वैकल्पिक विकास के रूप में देखा जा सकता है। जो मानवीय पर्यावरण के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है।
निष्कर्ष :- एक ओर यह बड़ी विडंबना है कि प्रभुत्वशाली ज्ञान से प्रभावित लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था ने बाजार के साथ मिलकर कुम्हार जाति को हाशिए पर रखने का काम किया है, जिसकी संख्या खेती-किसानी के इतर अपनी आजीविका इस माटी के बर्तन से प्राप्त करते हैं। दूसरे, यह है कि आधुनिकता के सिद्धांतों पर खड़े आधुनिक विज्ञान व आधुनिक तकनीकिकरण लगातार लोक ज्ञान परंपराओं को हाशिए पर ढकेल रहा है।
संदर्भ सूची (Bibliography) :-
- चट्टोपाध्याय, देवी प्रसाद. (2009). प्राचीन भारत में विज्ञान और समाज. अनुवादक, नरेंद्र व्यास. दिल्ली: ग्रन्थ शिल्पी.
- वसंत, निरगुणे. (आलेख). (नवम्बर 1993). मध्यप्रदेश के मिट्टी शिल्प. मध्यप्रदेश आदिवाशी लोक कला परिषद्, भोपाल का प्रकाशन.
- (2007). Essay on Tradition, Recovery and Freedom, collected writings VOL।5।, Uttaranchal, India: Other Indian Press Sidh.
- Sinha, Dr. B. P. (1969). (ed.) Potters in ancient India. Patna: The department of ancient Indian history and archaeology, patna university.
- Mirmira, S.K. (2004). Indian Pottery. Gramodaya Sangha Bhadrawati District Chanda Maharashtra State.
- Knowledge Swaraj an Indian manifesto science and technology, December 2009, https://stepscentre।org/anewmanifesto/manifesto_2010/clusters/cluster5/Indian_Manifesto।pdf
[1] S. Goonatilake, 1984. Aborted Discovery: Science and Creativity in the Third World. London: Zed Books.
[2] वहीं, पृष्ट. 1-2.
[3] G. Prakash, 2000. Another Reason: Science and the Imagination of Modern India. Delhi: Oxford University Press.
[4] P.N. Sankran, 2007. “Traditional Knoeldge as a Tool For Development: the case of Traibal Craft” In Traditional Knowldge Contemporary Societies Challenges and Opportunities, eds. K. K. Misra (Bhopal: Published by indira Gandhi Rashtriya Manav Sangralaya Hills, & Delhi: Pratibha Prakashan.
[5] V.D.K. Swami, 1947. Stone Age In India, Ancient India NO.3.
[6] S. K. Mirmira, 2004. Indian Pottery. Gramodaya Sanga Bhadrawati District Chanda Maharashtra State.
[7] S.K. Mirmira, 2004. Indian Pottery. Gramodaya Sanga Bhadrawati, Distict Chanda, Maharashtra State.
[8] रोमिला थापर, 2006. भारत का इतिहास, दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, पृष्ट. 45- 54.
[9] K. Ilaiah, 2007. Turning the pot tilling the land, Dignity of labour in our Times. New Delhi, Inaia: Navayana pp.55.
[10] डॉ. गोविन्दचंद राय. 1960. प्राचीन भारतीय मिट्टी के बर्तन, वाराणाशी: चौखम्बा विधाभवन.
[11] वही पृष्ट. 10-30.
[12] S.K. Mirmira, 2004. Indian Pottery. Gramodaya Sanga Bhadrawati Distict Chanda Maharashtra State.
[13] A. Rath, Pottery in India and Kurja. Mechanisms to improve Energy Efficiency in Samall industries: DFID PROJCT R7413. https://assets.publishing.service.gov.uk/media/57a08d5fed915d3cfd0019bc/R74134.pdf.
Dr. Amit kumar is teaching Political Science in Delhi University for more than a decade.