परंपरागत ज्ञान, आधुनिक विकास और राजनीति : भारत में मिट्टीकला (कुम्हार का ज्ञान)
डॉ. अमित कुमार,
दिल्ली विश्वविद्यालय.
सारांश (ABSTRACT) :– प्रस्तुत लेख समकालीन समय में ‘विकास के ज्ञान के सहभागी लोकतंत्रीय’ पक्ष/आयाम को परिलक्षित करने की एक कोशिश/ समझ से है. हालांकि विकास के ज्ञान को परिभाषित करने के बहुत से आयाम रहे है, जिसमें विकास को विभिन्न तरह से विवेचित किया जाता रहा है. विकास का संबंध अपने आप में ज्ञान से भी जुड़ा रहा है अर्थात् आधुनिक समय में विकास की अवधारणा की पहचान ज्ञान के सशक्त व उन्नत रूप से की जाती है. यद्यपि ज्ञान और विकास को जिस तरह आज एक साथ जोड़कर देखा जा रहा है उसमें ‘राजनीतिक पक्ष’ की एक महत्वपूर्ण भूमिका भी रही है. जो कि किसी ‘विशेष “ज्ञान”’ को विकास के साथ जोड़कर और ‘अन्य “ज्ञान”’ को ‘विकास के ज्ञान’ से दूर/विलग रखने में सहायक रहा है. यह ‘अन्य “ज्ञान”’ अपने आप में ज्ञान का ही एक रूप रहा है. इस ज्ञान को तीव्र वैज्ञानिक/तकनीकी आधुनिक सामाज में पारंपरिक/गैर-ज्ञान से संबोधित किया जाता है. हम ज्ञान के एक रूप को “परंपरा” के साथ जोड़कर देखते है. दूसरी ओर ज्ञान को “आधुनिक विज्ञान” के साथ जोड़कर देखते है. यहाँ प्रश्न यह है कि क्या आधुनिक ज्ञान को ही वास्तविक विकास का रूप माना जाना चाहिए ? परंपरागत ज्ञान का विकास के साथ क्या अंतसंबंध है ? क्या विकास का ज्ञान एक वैकल्पिक ज्ञान को माना जा सकता है ? वैकल्पिक ज्ञान की शुद्ध पहचान क्या होगीं अर्थात वैकल्पिक ज्ञान के वाहकों के तौर पर आधुनिक या परंपरा में से किसे अग्रणी व कैसे सामान माना जाए ?
मेरा यह लेख परंपरागत ज्ञान को विकास के ज्ञान में सहभागी लोकतंत्रीय आयाम के साथ देखने से है. ज्ञान का यह पारंपरिक रूप ‘ज्ञान की सकारात्मक पहचान’ और ‘विकास का ज्ञान’ में ‘ज्ञान के लोकतंत्र’ की पहचान से सम्बंधित होगा. जिसमें कुम्हार का ज्ञान (मिट्टीकला) अपने आप में परंपरागत ज्ञान का एक रूप रहा है. कैसे यह ज्ञान आधुनिक भारत में अपनी दयनीय स्थिति में है? मिट्टीकला/कुम्हारीकला भारतीय राज्य की विकास की संकल्पना में क्या भूमिका रखता है?
मुख्य शब्द :- पारंपारिक ज्ञान, विकास, कुम्हारीकला, मिट्टीकला
परंपरागत ज्ञान या लोकविद्या/लोकज्ञान और मिट्टीकला व कुम्हार का ज्ञान :- परंपरागत ज्ञान या लोकज्ञान को एक ऐसा ज्ञान माना गया है, जो कारीगरों व आदिवासियो के दिन-प्रतिदिन के कौशलीय आभ्यास का प्रतिफल है. यह ज्ञान लोगों सतत् के अनुभव-प्रयोगों और तर्क-बुद्धि से नवीनीकृत होता रहता है. इस पारंपरिक और लोकज्ञान का संबंध लोगों के जीवन के साथ बसा हुआ है. जिससे यह ज्ञान इन परिवारों की प्राणवायु माना जाता है. लोकविद्या समाज का सरोकार एक ऐसे समाज से हैं, जिसमें जिनकी अपनी एक भाषा, तरीको, ज्ञान, विश्वासों के साथ जीना तथा वह सब ज्ञान प्राप्त करना जो वह चाहते हैं. आधुनिक विकासीय जीवन के अनेक तत्व मनुष्य जीवन के स्वतंत्र अस्तित्व को नकारते रहे है. जिससे लोग अपने को स्वाभाविक तौर पर नहीं पहचान पा रहे हैं. इसमें विश्वविद्याल्यों का ज्ञान, केंद्रीकृत सत्ताए, प्रौधोगिकी और संघठित धर्म आदि को इस सबका ज़िम्मेदार माना जा सकता है.
लोकविद्या समाज को सामान्य अर्थों में इस प्रकार देखा जाता है.
- लोकविद्याधर समाज उन लोगों से बनता है, जो लोकविद्या के बल पर अपना परिवार, समाज, दर्शन आदि सब कुछ व्यवस्थित करते हैं.
- इस समाज के लोग कभी भी कालेज या विश्वविद्यालय में नहीं गए. लेकिन इन लोगों के पास अपने क्षेत्र-विशेष के कार्य का परंपरागत अच्छा ज्ञान होता हैं.
- पूरा का पूरा लोकविद्याधर समाज गरीबी, उत्पीडन, शोषण और सरकारी उदासीनता का शिकार है.
- लोकविद्या इस समाज का गुण है, जो इनसे छिना नहीं जा सकता है.[1]
लोकविद्या ज्ञान समाज किसी भी अर्थ में अपने को वैज्ञानिक ज्ञान से कम नहीं मानता है. लेकिन राज्य द्वारा आधुनिक विकास के ज्ञान को सहयोग और संरक्षण मिलते रहना और वहीं दूसरी तरफ पारंपरिक या लोकज्ञान को राज्य द्वारा सहयोग और संरक्षण न देने की मंशा इसे अस्तित्वहीन करने की प्रक्रिया रही है. जिससे पारंपरिक/लोकज्ञान के संरक्षक लोकविद्या जन आंदोलन (LOJA) के रूप में अपनी अस्मिता के लिए संघर्षरत रहा है. पूँजी के प्रतिष्ठानों, विश्वविद्यालयों और राज्य की व्यवस्थाओं ने इस पारंपरिक/लोकज्ञान को अज्ञानी/गैर-ज्ञान घोषित कर दिया है. भारत में “लोकविद्या” का अभियान, बोलीविया में “धरती माँ के अधिकार” का आन्दोलन, इक्वाडोर में “प्रकृति के अधिकार” आदि ने अपना एक विशिष्ट स्थान को केन्द्रित किया है. अब यहाँ “ज्ञान के पूँजीवाद” और “ज्ञानमुक्ति” के विचार एक नई राजनीतिक बहस को जन्म दे रहे हैं. इन सभी ने यह आग्रह किया है कि लोगों के पास ज्ञान होता है और लोकविद्या, विज्ञान के नाम पर प्रसारित ज्ञान से किसी भी अर्थ में कम नहीं है.[2]
यद्यपि यहाँ पर हम बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक विषयों को केंद्र में रखकर देंखें तो पाएंगे कि कैसे बहुसंख्यक लोकज्ञान पर आधुनिक वैज्ञानिक-तकनीकी अल्पसंख्यक ज्ञान का कब्ज़ा हो चला है. जिसके कारण यह आधुनिक तकनीकी-विज्ञानिक ज्ञान स्वयं में ज्ञान का मुख्य केंद्रक बन बैठे है. राज्य की विकासोन्मुख नीतियों में आधुनिक विज्ञान-तकनीकी ज्ञान को तवज्जो देना और परंपरागत/लोकज्ञान की विशिष्टता की उपेक्षा करने की रही है. यहाँ मेरा प्रश्न, ज्ञान के एक पहलु (आधुनिक वैज्ञानिक-तकनीकी ज्ञान) को तो समाज में सम्मान और गरिमा का केंद्र माना जा रहा है. वहीं दूसरी ओर एक ऐसे ज्ञान को नजरअंदाज किया जा रहा है, जो लोगों के लम्बे अनुभव पर आधारित रहा है और प्रकृति के हित में रहा है.
सामान्यतया स्थानीय ज्ञान व्यवस्था जानने और समझ के मध्य एक ब्रिज का काम करती है. जेन ब्रौवेर (JAN BROUWER) का मत है कि स्थानीय ज्ञान को जानना और उसे पीड़ी दर पीड़ी लेकर चलना और किसी एक स्थान के साथ ही जुड़ा होना एक परंपरा नहीं है. यहाँ पर परंपरा और अविष्कृत परंपरा (Tradition or Innovative Tradition) के मध्य भेद करने की आवश्यकता है. वास्तविक परंपरा मुलत: प्राचीन, और विलग रहन-सहन और दिन-प्रतिदिन की प्रक्रिया से होगी. जबकि अविष्कृत परंपरा का अर्थ “एक व्यवहार/अभ्यास का क्रम/सेट है. जो पुनरावृती के द्वारा व्यवहार के कुछ मूल्यों को लेकर चलती है. जो कि अपने आप में अपने अतीत के साथ लागु होती है”[3].
सन 1950 के दशक से भारत जैसे नव-स्वतंत्र देशों में ज्ञान को “ज्ञान की पहेली/बुझौवल/रहस्य/समस्या” (Enigmas of Knowledge) के परिपेक्ष्य/संदर्भ में रखकर देखा जा सकता है. यहाँ एक तरफ़ ऐसे ज्ञान को सराहा जाता है जो कि किसी देश/भू-भाग विशेष के लोगों के साथ घनिष्टता से जुड़ा है अर्थात जिसे परंपरागत ज्ञान की संज्ञा दी गई है. वहीं दूसरी ओर तथाकथित मान्यता के अनुसार ऐसे ज्ञान की प्राधान्यतः से है, जो कि किसी क्षेत्र-विशेष में एक समय का ज्ञान/उत्पाद रहा. लेकिन वह ज्ञान अन्य भू-भाग पर शासन के आधिपत्यं द्वारा आरोपित किया गया व उन अन्य भू-भाग के कुछ लोगों ने उस ज्ञान के प्रति इतनी श्रध्दा दिखाई की वह अपने आपको ज्ञान के अतीत से निकालकर ज्ञान के भविष्य में तलाशने के सपनें संजोने लगे. यह ज्ञान, विज्ञान और उच्च तकनीक के रूप में एक सार्वभौमिक ज्ञान की वैद्यता पाप्त करता रहा. इसे हम समाज, राज्य-राष्ट्र/देश और विश्व में ज्ञान के आरोपण और ज्ञान के अनुकरण के रूप में देख सकते है. वहीं दूसरी ओर हमें ज्ञान के इस संदर्भ में पारंपरिक ज्ञान की वक़ालत करने वाले तर्क भी देखने को मिले है. यह एक तरफ तो यह सिद्ध करने का प्रयास करते है कि आधुनिक वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान अपने आप में किसी भू-भाग और समय विशेष का स्वतंत्र अविष्कार न होकर अन्य भू-भागों के पारंपरिक ज्ञान का समिश्रण और विकसित रूप है. यह ज्ञान अपने आपको आज के समय में परंपरागत ज्ञान से विलग कर सशक्त स्वतंत्र आधुनिक ज्ञान के रूप में परिभाषित करने का प्रयास करता है. यह ज्ञान अपनी इन पद्धतियों से अपने भविष्य को सुरक्षित करने का प्रयास करता रहता है. जबकि दूसरी ओर यह तर्क भी मान्य रहा है कि “पारंपरिक ज्ञान” “आधुनिक ज्ञान” की उपेक्षा अधिक विकसित रहा है. यह पारंपरिक ज्ञान आज के समय में विकास/प्रगति के क्षेत्र में मानवीय (वन्यजीवों के) जीवन और प्राकृतिक संरक्षण के लिए अधिक उपयुक्त विकल्प हो सकता है.
कुम्हार से तात्पर्य उन जन-समुदाय से है जो अपने सृजनात्मक उत्पादों से मानव विकास का पथगामी रहा है तथा जिसकी अनुठी छाप हम प्राचीन भारतीय हड़प्पा संस्कृतिक समय से देख सकते है, जो इतिहास का एक अभिन्न अंग है. कुम्हार वह कलाकार होता है जो पाँच तत्वों (Five Element) (धरती/मिट्टी (Earth/clay), आकाश (Sky), हवा (Air), प्रकाश, जल (Water), अग्नि (Fire),) को एक साथ मिलाकर अपना कार्य संपन्न करता है. जिससे किसी कल्पना को एक आकृति प्रदान की जाती है.
मिट्टी के प्राप्त उत्पादों/अवशेषों के आधार पर प्रत्येक-काल के मनुष्य जीवन की परस्थितियो का पता लगाया जा सकता है. वी. डी. कृष्ण स्वामी (V. D. KRISHAN SWAMI) बताते है कि आज मनुष्य के विकास का जो अध्ययन हो रहा है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्राथमिक युग में मनुष्य को किसी प्रकार के बर्तनों की जरुरत नहीं थी. वह अपना जीवन कच्चा मांस खाकर तथा फलों के द्वारा यापन करता था. किन्तु आगे (प्रस्तर युग में मिट्टी के बर्तंन) मनुष्य हाथ से मिट्टी के बर्तन बनाने लगा. प्रारम्भ में मनुष्य ने पानी को एकत्रित करना सीख लिया था. जो कि जानवरों को पानी पिलाने के लिए पेड़ो को काटकर उसको खोखला करके किया जाता था. प्रारंभ में मटके/कुम्भ/घड़े का प्रयोग खोखले तौर पर मिट्टी से बनाया गया था. लेकिन बाद में बंबू से पानी को एकत्रित करने की कला से लेकर मिट्टी के बर्तनों को अग्नि में पकाकर उसे ज्यादा मजबूत बनाने की समझ का विकास हुआ. इससे ज्ञात होता है कि हमारे सभ्यकरण से पूर्व ही कुम्हार कला का इतिहास में अस्तित्व रहा है.[4] सर ब्रिडवुड (SIR BRIDWOOD) के अनुसार भारत में मिट्टी कला का उद्भव भारतीय मानव के सभ्यकरण से भी पूर्व रहा है. इनके अनुसार मिट्टी कला भारत से मिस्र (EGYPT), मेसोपोटामिया, बेबिलियोन आदि तक गयी. वहाँ पर हम भारत के जैसे ही विचारों को पाते हैं. इस समय में भट्टी की ईंट, छोटी मूर्तिया, घड़ो/मटकों का एकत्रण, आदि की व्यवस्था स्पष्ट देखी जा सकती है. हड़प्पा और मोहन-जोदड़ो से प्राप्त साक्ष्यों तथा ऋग्वेद में वर्णन से इसका महत्व तथा विकास प्रतिबिंबित होता है. जे. एस. पी. परमर और डी. टी. ऐन. केंट के शोध में विवेचन है कि चीन सर्मिक (“CERMICS”) का चीन में (A.D 581-681) तक सू काल (SUE DYNASTY) में प्रयुक्त मृदा उत्पाद भारत से आयातित हैं.[5] इस तरह कुम्हार का ज्ञान मनुष्य के जीवन के साथ अधिक जुड़ा रहा और उसका विश्व के अन्य क्षेत्रों तक फैलाव हुआ. कुम्हार के द्वारा प्रयोग किए जाने वाले यंत्र और उसकी स्थानीय तकनीक से कुम्हार ज्ञान के संयोजक के रूप में उभरता है. कुम्हार की तकनीक का स्तर तीन पक्षों से देखा जा सकता है-मिटटी की पहचान, बनाने की प्रक्रिया और पकाने की पद्धति.
आधुनिक विकास, पारंपरिक मिट्टीकला का ज्ञान और राजनीति :- प्रश्न यह उठता है कि ज्ञान और विकास के मध्य क्या संबंध है ? इस प्रश्न को दो अर्थों में देखा जा सकता है. इनमें से एक का संबंध उस तरह के ज्ञान से है जो लोगों के विकास के साथ-साथ प्रकृति के लिए भी उचित माना जाता है. अर्थात ऐसा ज्ञान जो प्रकृति को किसी तरह की हानी पहुचाएं बिना मानव जीवन के विकास के पथ को बनाए रखें. इसे बहुत से विद्वानों ने परंपरागत ज्ञान या लोकज्ञान कि संज्ञा दी है. वहीं ज्ञान के दूसरे पक्ष में यह बताया गया है कि कैसे आधुनिक ज्ञान (तीव्र वैज्ञानिक और तकनीकी) मनुष्यों और अन्य प्रजातियों के लिए हानिकारक ज्ञान साबित होता रहा है. एक तरफ यदि हम ज्ञान के एक पक्ष के रूप में वैज्ञानिक ज्ञान को विकास के लिए स्वीकार करें, तब उसका क्या तकाजा होना चाहिए इसे हमें जरा गहराई से समझने की आवश्यकता है. और दूसरी तरफ “ज्ञान का स्वराज”[6] (KNOWLEDGE OF SWARAJ) का अभिमत काफी महत्वपूर्ण होता जा रहा है. जो अपने आप में वैज्ञानिक-तकनीकी ज्ञान से परे अपने ज्ञान के अस्तित्व की माँग से जुड़ा हुआ है. इस प्रकार ज्ञान के इन दोनों अर्थो में ज्ञान का समबन्ध उन सभी क्षेत्रों से रहा है, जिसे मनुष्य अपने आसपास के वातावरण में पाता है. इसमें हम सामाजिक और आर्थिक परिक्षेत्र को लेते है, जो मनुष्य के जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक है.
विश्व में आधुनिक विकास की आलोचना के रूप में 1970 के दशक में नए सामाजिक आन्दोलन जिसमें महिला और पर्यावरण आन्दोलन, आधुनिक विकास और अल्पविकास के मुद्दे उभरकर सामने आएं. हम सर्वप्रथम निर्भरता के सिद्धांत को देखते है. इससे जुड़े विद्वानों (जिन्हें नव-मार्क्सवादियों के नाम से जाना जाता है) ने माना की विकास और अल्पविकस दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. यहाँ पर हम रोउल प्रेबिस्च (Roul Prebisch) के केंद्र, परिधि और अर्ध-परिधि (Center, Periphery and Semi-Periphery), आंद्रे गुंद्रे फ्रेंक (A.G. Frenk) केंद्र, परिधि (Metropole and Satellite) के अभिमत को और समीर अमीन (Sameer Amin) के तीसरे विश्व के देशों में अंतर्राष्टीय स्तर पर हो रहे विनिमय पर प्रभुत्वशाली राष्ट्रों के प्रभुत्व के सिद्धांत को देख सकते हैं.[7] निर्भरता सिद्धान्त के विद्वानों का मानना है कि औपनिवेशिकता का औपचारिक स्वरूप आज बदले हुए रूप में नव-उपनिवेशवाद (New-Colonialism) या आर्थिक-उपनिवेशवाद (Economic – Colonialism) के रूप में विद्यमान है. इसके अंतर्गत प्रथम विश्व के विकसित देश तीसरे विश्व के विकासशील देशों में पूंजी निवेश करके उन्हें कच्चे माल के पूर्तिकर्ता और तैयार माल के बाजार के तौर पर इस्तेमाल करते है. (J. Haynes, 2002)
सन 1980 के दशक से प्रभुत्ववादी विकास के प्रतिमान/माडल को नाकारा जाने लगा. विकास के विचारकों का एक समूह विकास के वैकल्पिक आलोचनाओं के साथ 1990 के दशक से उत्तर-आधुनिक विकास के प्रतिमान के रूप में जाना गया. इसमें विकास के लिए वैकल्पिक ज्ञान की बात को प्रमुख रखा गया. यह वैकल्पिक ज्ञान वह ज्ञान है जिसकी पहचान विविध पारंपरिक ज्ञान के श्रोतों में की जाती है. इस तरह से विश्व में ऐसे विकास की परिकल्पना की गई, जो आधुनिक वैज्ञानिक-तकनीकी ज्ञान से परे, पारंपरिक ज्ञान को वैकल्पिक ज्ञान के श्रोत के तौर पर आपनाया जाए.[8] विकास के संदर्भ में यदि हम विवेचन करें तो देखते है, कि विज्ञान ही विकास का मूल श्रोत है. जिसे अतिवैज्ञानिक व तकनीकी होने के कारण उपद्रवी/विनाशी विकास का रूप माना गया. लेकिन वहीं स्थानीय ज्ञान व पारंपरिक पर्यावरण ज्ञान के धारकों के ज्ञान को शांतिपूर्ण विकास में महत्वपूर्ण माना जा रहा है. आज के समय में यह ज्ञान जहाँ अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है. वहीं दूसरी और यह ज्ञान मानवीय विकास में एक वैकल्पिक ज्ञान के तौर पर कार्य भी कर रहा है.
यद्यपि प्राचीन भारत में कुम्हार अपने उत्पादों के कारण काफ़ी विख्यात माना जाता था. उसके उत्पाद विश्व के अन्य क्षेत्रों में विक्रय के लिए जाते थे. उदाहारण के लिए हम पूर्व-काल में सद्दलपुत्र नामक एक धनी कुम्भकार को देखते है जो मिट्टी के बर्तन बनाने की पॉंच सौ कार्यशालाओं का स्वामी था. इसके अतिरिक्त उसकी अपनी वितरण व्यवस्था थी, जिसमें वह नौकाओं द्वारा अपने बर्तनों का व्यपार दूरस्थ क्षेत्रों में करता था.[9] इसके साथ ही कुछ विद्वानों का मत है कि औपनिवेशीकरण के पहले तक भारत में कुम्हार की स्थिति अच्छी मानी जाती हैं. लेकिन औपनिवेशिक शासन प्रणाली ने वैज्ञानिक तकनीकी आधारित उत्पाद को बढावा देने के लिए नीतियों का निर्माण किया. कुम्हार के पारंपरिक ज्ञान पर इसका प्रत्यक्ष प्रभाव देखा गया. वह अपनी स्थानीय ज्ञान पद्धति से विलग, इस कार्य में जुटे और अपने उत्पादों का निर्माण इनके अनुसार करने लगे. थामस सिमुले कुहन दर्शाते हैं कि कैसे किसी एक सामाज कि सांस्कृतिक और पारंपरिक व्यवस्था में बदलाव का कारण “वैज्ञानिक क्रांति” का होना है. जो कि पुराने पैराडाइम के स्थान पर नए पैराडाइम का आने से होता है. यह पुराने तथ्यों से परे नए तथ्यों के आधार पर ज्ञान के परिप्रेक्ष्यों को परिवर्तित रूप में सामने रखता है.[10] इस तरह हम देख सकते है कि कैसे किसी ज्ञान के पारंपरिक क्षेत्र में बदलाव उसके पीछे के वैज्ञानिक और तकनीकी व्यवस्था पर निर्भर करते हैं. और यह तकनीकी अविष्कार किसी समाज के आंतरिक व बाध्य स्वरूप के परिवर्तन लाता है.
आधुनिक समय में, मैं यहाँ पर मूलत मिट्टी कला के संदर्भ में कुछ अन्य बातों पर भी प्रकाश डालने का प्रयास करूंगा. आधुनिक समय के साथ-साथ भारत में चीनी मिट्टी का प्रवेश भी देखा जा सकता है. सर्वप्रथम भारत के बिहार में चीनी मिट्टी के बने बर्तनों को हम 1839 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा उत्पादित पाते है. इसके बाद 1859 में बिहार और बंगाल में रेलवे और कंपनियों के लिए ईंटो को बनाना शुरू किया गया. तथा कलकत्ता और ग्वालियर इस सदी के प्रथम चीनीमिट्टी उद्यगो के गढ़ रहे थे.[11] इस तरह हम देख सकते हैं कि कैसे भारत में मिट्टी कला के ज्ञान क्षेत्र पर आधुनिकीकरण का प्रभाव पड़ा है. अमिताव रथ (AMITAV RATH), खुर्जा में सेरामिक पॉटरी पर एक अध्ययन में बताते है कि आधुनिक समय में उत्तर-प्रदेश (U.P) सरकार द्वारा 1942 में मिट्टी कला के कारखानों का निर्माण कराया गया. 1930 के दशक में प्रो. एच. एन. राय को उत्तर प्रदेश सरकार ने नियुक्ति किया (जो सफ़ेद रंग के चीनीमिट्टी के उत्पाद के परिक्षण के साथ इंग्लैंड से आए) जिन्होंने भारत में खुर्जा में परंपरागत स्थानीय कुम्हारों को उनकी तकनीक में सुधार और नए तरीके के तकनीकी अविष्कार को अपनाने का मत दिया.[12]
आधुनिक औद्योगिकरण जो कि औपनिवेशिक समय में शायद भारत में कुम्हारों के ज्ञान पर कमतर रहा. लेकिन 1930 के दशक से लोगों का रुझान इस ओर ज्यादा होने लगा. जिससे पश्चिमी तकनीक के द्वारा बने सेरामिक उत्पादों को बढावा दिया गया. परिणामस्वरूप उन्होंने अपने विज्ञान-तकनीकी ज्ञान को भारत के परंपरागत ज्ञान में पिरोने लगे. आधुनिक ज्ञान को तकनीकी उच्चता तथा बाजार की माँग के अनुकूल होने के चलते परंपरागत स्थानीय ज्ञान को एक बड़े स्तर के कारखाने के निर्माण में योगदान किया जाने लगा. लेकिन क्या इसे कुम्हारों के कौशल में सुधार माना जा सकता है ? आखिर क्यों परंपरागत ज्ञान रखने वाले कुम्हार सेरामिक उत्पादनों की ‘विशेषता’ को समझ नहीं पाए ? क्यों सरकार/राज्य कुम्हार के परंपरागत ज्ञान का आधुनिक तकनीक द्वारा विकल्प खोजने का प्रयास कर रहा था ? क्यों युद्ध के समय यह कारखाना सैनिक विभागों के लिए उत्पाद बना रहा था ? आदि प्रश्न यहाँ पर कुम्हारों के संदर्भ में शासक की प्रभुत्व और अवसरवादी नीतियों से स्पष्ट संबंधित रहे हैं. बेरनार्ड लीच (BERNARD LEACH) का अभिमत है कि कैसे आधुनिकतावादी “विज्ञान” को ही आज मानव की सभी समस्याओं के निवारण का केंद्र माना गया है. इसका प्रभाव पारंपरिक ज्ञान पर सापेक्ष तौर पर पड़ने लगा. जिससे ज्ञान की गुणवता के स्थान को औद्योगिकरण के कारण व्यक्ति की स्थानीय कला का ह्रास होने लगा और उसके स्थान पर बड़े उद्योग कारखाने लगाए गए. और बड़े/वृहत स्तर पर लोगों के लिए उत्पादन होने लगा तथा बाजार और उपभोक्ता के मध्य समीपता का संबंध स्थानीय हुआ.[13]
यहाँ प्रश्न के तौर पर यह देखा जा सकता है कि क्या आधुनिक विज्ञान-तकनीक कि उच्च माँग ने भारतीय पारंपरिक सामाजिक जातिगत व्यवसायिक व्यवस्था पर प्रभाव डाला है ? वैसे आधुनिक बाजारवादी व्यवस्था के आधार पर ही आज सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का सृजन किया जा रहा है. आज बाजार में उपभोक्ता की माँग कलाकारों की कला शैली को प्रभावित कर रही है. अर्थात बाजार में उच्च आधुनिक तकनीक के आधार पर बनें उत्पादों की माँग जनसमूह में अधिक देखने को मिलती हैं. इसका कारण हम लोगों में आधुनिकरण की तरफ पलायन/रुझान से मान सकते हैं. लोगों के इस पलायन/रुझान से उनके सामाजिक ही नहीं बल्कि आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में भी बदलाव देखने को मिलता है. जिसके परिणाम स्वरूप हम देखते हैं कि भारतीय पारम्परिक सामाजिक बाजारी व्यवस्था पर प्रभाव पड़ा है. जिसमें कोई समुदाय अपने कार्य के आधार पर अपनी अस्मिता/पहचान को पाता था, उसे आधुनिक तकनीक आधारित बाजार व्यवस्था ने प्रभावित किया. जिससे उसे उसके पारंपरिक कार्य-शैली से अलग कर नई तकनीक के साथ कार्य करने पर मजबूर होना पड़ा है.
अमिताव रथ बताते हैं कि कुम्हारों के विकास में वृद्धि न होने का कारण इन छोटे छोटे उद्योगों के समक्ष इनके उत्पाद को बढाने में तकनीकी सहायता के लिए वित्तीय समस्याए हैं. जैसे कच्चे तेल और गैस के द्वारा मिट्टी के बर्तनों को पकाने तथा उत्पाद को बनाने के लिए हाथ के स्थान पर मशीन के प्रयोग पर अधिक बल देने से हैं. और दूसरी समस्या लोगों द्वारा अपने लाल रंग के उत्पादों के स्थान पर सफ़ेद रंग के उत्पाद बनाने संबंधी सामाजिक मतभेद रही हैं. जिससे ये क्षेत्र बड़े स्तर पर उत्पाद न बढाने में सक्षम नहीं रहे हैं.
निष्कर्ष :-
संक्षेप में यदि कहा जाए तो आज ज्ञान के जिन स्वरूपों/आयामों को हम देखते है, चाहे वह ज्ञानमीमांसीय ज्ञान का आयाम हो, सामाजशास्त्रिय हो, आर्थिक हो, वैज्ञानिक हो और चाहे पारंपरिक/स्थानीय/लोकविद्या/देशीय रहा हो इन सभी में हम आज अमुलचुक परिवर्तनों को देख रहे है. जिससे आज ज्ञान के ये सभी आयाम एक नयी व्यवस्था की माँग को दर्शाते है. जिसमें सभी तरह के ज्ञान को विकास के माडल के तौर पर लिया जाए. यह विकास ऐसा विकास हो जिससें मानुष्य के साथ-साथ गैर-मनुष्य के अक्ष को भी केंद्र में रखा जाए.साथ ही ज्ञान के ये आयाम इस प्रकार अपने को परिभाषित करें जिससे बिना किसी हानी के सभी के हितों की पूर्ति होती हो सके. भारतीय औद्योगिक नीतियों के कारण इतने सक्षम नहीं हुए हैं जिससे वह विश्व के बड़े उच्च तकनीकी उधमों से प्रतियोगिता कर सके. आज ज्ञान के क्षेत्र में एक ऐसे ज्ञान के सत्याग्रह की आवश्यकता है. जिसमें ज्ञान स्वतंत्रता और समानता के साथ-साथ न्याय को प्रतिस्थापित कर सके. जिसमें लोगों के मध्य अलगाव के स्थान पर लगाव का भाव उत्त्पन्न हो सके. जिसमें कुम्हार के द्वारा निर्मित उत्पाद कलाकार, उपभोक्ता और प्रकृति तीनों के साथ सामंजस्य स्थापित किया जा सके. अर्थात यहाँ पर सिर्फ नीतियों को तकनीक और उत्पादकता तक ही सीमित करके नहीं देखना चाहिए बल्कि इसे मनुष्य के भावी शांतिप्रिय भविष्य के विचार को केंद्र में रखकर इसे देखने का प्रयास करना चाहिए.
संदर्भ सूची
- गाँधीजी. (१९९७). “हिन्दस्वराज” (अनुवादक, अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी). अहमदाबाद, नवजीवन प्रकाशन मंदिर.
- सहस्रबुद्धे , चित्रा. (समन्वयक). (2011). लोकविधाकी किताब, स्मारिका लोकविधा जन आन्दोलन पहला अधिवेशन वाराणसी. सारनाथ वाराणसीविधा आश्रम.
- सहस्रबुद्धे, चित्रा. (2008). लोकविधा,(ज्ञान की राजनीति पुस्तकमाला-5), सारनाथ वाराणसी: विधा आश्रम.
- सहस्रबुद्धे, सुनील. (2008). ज्ञान मुक्ति आवाहन,(ज्ञान की राजनीति पुस्तकमाला-3), सारनाथ वाराणसी: विधा आश्रम.
- सहस्रेबुद्धे,सुनील. (2007). ‘ज्ञान की राजनीति’, पुस्तकमाला-4, युवा ज्ञान शिविर, ज्ञान मुक्ति मंच, सारनाथ वाराणसी: विधा आश्रम, 21-22 जुलाई.
- कुन, टॉमस.एस. (2000). वैज्ञानिक क्रांतियो की संरचना. अनुवादक.अगमप्रकाश शुल्क. दिल्ली: ग्रंथ शिल्पी.
- कुलेट,फिलिप. (2008). बौद्धिक संपदा संरक्षण और टिकाऊ विकास. (संपादन: हिंदी संस्करण राजेन्द्र रवि) (आलेख अभय कुमार दुबे). दिल्ली: वाणी प्रकाशन.
- वसंत, निरगुणे. (आलेख), मध्यप्रदेश के मिट्टी शिल्प. मध्यप्रदेश आदिवाशी लोक कला परिषद्, भोपाल का प्रकाशन, नवम्बर
- गोविन्दचंद, राय. (1960). चीन भारतीय मिट्टी के बर्तंन. वाराणाशी: चौखम्बा विधाभवन.
- थापर, रोमिला. (2006). भारत का इतिहास. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
- Berkes, F., J. Colding and C. Folke .(oct, 2000). Rediscovery of Traditional Ecological Knowledge as Adaptive Management. Ecological society of America, Vol. 10, No. 5. Stable URL: http://www.jstor.org/stable/2641280. Accessed on: 03/02/2012 03:40
- (2007). Essay on Tradition, Recovery and Freedom, collected writings VOL.5., Uttaranchal, India: Other Indian Press Sidh.
- Diwan, R. and S. Gidwani. (1985). “Elements in Gandhian Economics.” in Essays in Gandhiyan Economics, (ed). Romesh Diwan and Mark Lutz. New Delhi: Gandhi Peace Foundation.
- Gadgil, M., F. Berkes and C. Folke. (1993). “Indigenous Knowledge for Biodiversity Conservation” Ambio, Vol 22, No. 2/3, Biodiversity: Ecology, Economics, Policy, Stable URL: http://www.jstor.org/stable/4314060. Accessed:22/12/2012 06:22
- Handbook on some political issues surrounding food and agriculture in India (Indian coordination of farmers movement. viacampesina.org http://lvocsouthasia accessed on 1/1/2013
- Knowledge Swaraj an Indian manifesto science and technology, December 2009, kicsforum.net. Accessed on: 25/12/2012
- Kothari, R. (1990). Rethinking Development In Search of Humane Alternatives. New Delhi: Ajanta publication.
- K. K. (2007) Traditional Knowledge in Contemporary Society Challenges and Opportunities. Delhi: Pratibha Prakashan.
- Nandy, A. (1980). Alternative science, Creative And Authenticity In Two Indian Scientists. New Delhi: Allied Publication private limitad.
- Nandy, Ashis,. (ed.) (1988). Science, Hegemony And Violence: A Requiem for Modernity, Delhi Oxford University Press.
- Natrajan, B. (Summer, 2005). Caste, Class and Community in India: an ethnographic approach, VOL. 44, No. 3, University of Pittsburgh of the commonwealth system of higher education. Stable URL: http://www.JSTOR.ORG/STABLE/3774057 Accessed:01/09/2012 , 06:54 PM
- Patrick Baert and Fernando Dominguez Rubio., () (2012). The Politics of knowledge, London: Routledge.
- Prabhath, S. V. (2010). (ed.), Perspectivs on Nai Talim. New Delhi, India: Serials publivaction.
- Visvanatan, S. (2007). ‘Between Cosmology and System: The Heuristics of a Dessenting Imagination,’ In Another Knowledge is Possible beyond Northern Epistemologies, Boaventura De Sosua Santos (ed.). New York, London: Verso.
[1] सहस्रबुद्धे, डॉ. चित्रा. (समन्वयक), लोकविद्याकी किताब, स्मारिका लोकविद्या जन आन्दोलन पहला अधिवेशन वाराणसी, विधा आश्रम सारनाथ वाराणसी. (12-14 नवम्बर 2011)
[2] सहस्रबुद्धे, सुनील. ‘ज्ञान मुक्ति आवाहन, ज्ञान की राजनीति’ पुस्तकमाला-3, विधा आश्रम सारनाथ वाराणसी. (नवम्बर 2008).
[3] Brouwer, Jan. “Perspective on indigenous knowledge system: Development, oral tradition and globalization.” In Traditional Knowledge Contemporary Societies Challenges and Opportunities, (editor) Kamal K Misra and (Genral editor) Kishor K Basa. Published by indira Gandhi Rashtriya Manav Sangralaya Hills, Bhopal & Pratibha Prakashan, Delhi, 2007. PP.36-51
[4] V.D.K. Swami, Stone Age In India, Ancient India NO.3. (1947).
[5] S. K. Mirmira, Indian Pottery. Gramodaya Sanga Bhadrawati Distict Chanda Maharashtra State (2004).
[6] Knowledge Swaraj an Indian manifesto science and technology, December 2009, www.kicsforum.net यह अभिलेख गाँधी जी के हिंद-स्वराज में दिए गए स्वशासन / self-rule के अभिमत से प्रभावित है, जिसमें स्वशासन का अर्थ सिर्फ औपनिवेशिक शासन से आजादी पाने मात्र से ही नहीं है, बल्कि उनके द्वारा प्रशस्त विकास, औद्योगिकीकरण, वैज्ञानिकिकरण तथा आधुनिकिकरण से बचते हुए अपनी नीतियों और समाज का संचालन से है. जो उनके विनाशकारी विकास के स्थान पर शांतिपूर्ण स्वशासन से होगा.
[7] Chilcote, H. Ronald.(2 ed.). Theories of Comparative Politics, The Search for a Paradigm Reconsidered. WESTVIEW PRESS. (1994).
[8] Santos, Boaventura de Souse, (ed.), Another Knowledge is Possible, Beyond Northern Epistemologies, Verso, London; New York. (2007).
[9] रोमिला थापर, भारत का इतिहास, दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, (2006), पृष्ट. 99.
[10] टॉमस.एस. कुहन, वैज्ञानिक क्रांतियो की संरचना, (अनुवादक, अगमप्रकाश शुल्क), दिल्ली: ग्रंथ शिल्पी, (2000).
[11] S.K. Mirmira, Indian Pottery. Gramodaya Sanga Bhadrawati Distict Chanda Maharashtra State, (2004).
[12] A. Rath, Pottery in India and Kurja. Mechanisms to improve Energy Efficiency in Samall industries: DFID PROJCT R7413. http://www.pri.on.ca
[13] B. Leach, (II) The Contemporary studio-potter, VOL.96, NO. 4769, Jornal of the Royal society of arts, (may 21. 1948), Stsblele URL: http://www.jstor.org/stable/41363609. accessed: 01/09/2012 06:43.